Monday 11 August 2014

प्रतिशोध (अंश ३)

नोट: यह एक चल रही कहानी का तीसरा अंश है, पिछले अंश पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ अंश 2अंश 1



दस्ते ने सरहद पार उस गाँव में अपने कदम धर दिए. बड़े भाई ने गाँव के चबूतरे पर चढ़कर ललकार भरी, "कौन है वो जिसने हमारे पिता कि हत्या कि, सामने आए". सहसा इस तरह के आगमन से गाँव के लोग भयभीत हो उठे; दबे होटों में बातें होने लगीं. बड़े भाई ने एकबार फिर आवाज लगाई, "आखिरी बार पूछता हूँ किसने हमारे पिता को मारा, सामने आ जाए अन्यथा सबको भुगतना पड़ेगा". यह सुनकर गाँव का सरगना सामने आया. उसने पुछा, "क्या परेशानी है भाई? क्यों सबको धमकाए जा रहे हो?" बड़े भाई ने टकटकी से उस आदमी को देख आवेश में पूछा, "क्या वो तुम हो जिसने हमारे पिता कि हत्या की है? सच-सच बता दो अन्यथा सारे गाँव के लोग अकारण मारे जाएँगे". सरगना कुछ समझ नहीं पा रहा था, स्थिति समझने के लिए उसने आगे प्रश्न किया, "तुम कौन हो और क्या चाहते हो? हम नहीं जानते कि तुम्हारे पिता को किसने मारा. तुम्हे इस तरह हमारे गाँव के लोगों को धमकाना नहीं चाहिए; एक तो ये पहले ही गलत है कि तुम अपने साथियों के साथ सारे हथियार लिए यहाँ घुस चले आए हो और उसपर भी हमे ही धमका रहे हो! तुम जहाँ से भी आए हो लौट जाओ. बड़ा भाई गुस्से से तमतमा उठा! उसने आब देखा न ताब और उस बूढ़े सरगने पर डंडे बरसाना शुरू कर दिए. एक के बाद एक उसने उस डंडे से सरगने के शरीर पर हज़ारों चोटें कर डाली. हालत ये हुई कि वह बूढा ज्याद मार न सह सका और बेहोश हो गया. अपने बूढ़े सरगने को पिटते हुए देख सारे गाँव में आग की सी लपट दौड़ गई; जिसने आस-पास जो कुछ पड़ा पाया वही उठाकर दस्ते पर टूट पड़ा. देखते ही देखते एक शांत गाँव युद्धभूमि बन गया. मिट्टी ने लाल रंग ओढ़ लिया, चारों तरफ स्त्री-पुरुष लहूलुहान हो रहे थे. परन्तु इस आकस्मिक हमले का सामना वो गाँव ज्यादा देर न कर सका; बंदूकों से निकली गोलियों ने जाने कितने गाँव के निर्दोषों की छाती चीर दी. जहाँ-तहाँ लाशों के ढेर जम गए! जो लोग अभी थोड़ी देर पहले हँस-खेल रहे थे, देश और दुनिया की बातों में मशगूल थे, जो महिलाएँ  अभी कुछ देर पहले अपनी सखियों को छेड़ रही थी, सब के सब उन्ही ढेरों के हिस्से बन गए. रह गए थे तो कुछ बच्चे और साथ ही गाँव के कुछ बूढ़े लोग जो इन बेजान शरीरों पर बस अश्रु बहा सकते थे. पर इस भीवत्स दृश्य ने भी बड़े भाई के कठोर ह्रदय पर कोई प्रभाब न डाला. उल्टा बात ये हुई की जैसे तूफ़ान सब तहस-नहस कर बड़े शान से इठला कर अपनी राह को चल देता है, ठीक उसी तरह बड़े भाई ने अपने दस्ते को प्रस्थान का आदेश दिया और अपनी छाती चौड़ी कर वापस अपने देश को चल दिया! मन में गर्व और उल्लास इस तरह तैर रहा था मानो उसने सर्वश्व पा लिया हो. बात भी कुछ यूँ ही थी, उसका बदला पूरा हो चुका था!

आगे की कहानी: अंश 4

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