Tuesday 19 April 2016

आवाज़...!

लोग गूंगा कहते हैं अब मुझे,
पहचानते नहीं मेरी आवाज़ को.
कहते हैं पिछली पूस में जब बहुत ठण्ड पड़ी थी,
उस दफा आखिरी आवाज़ सुनी थी मेरी.
हाँ सच ही है,
वो पूस मेरा सबकुछ ले गया.
चढ़ते सूरज के साथ तुम जो विदा हुई,
मेरी आवाज़ तबसे ढूंढने निकली है तुम्हें.
आज भी उन रास्तों पर नज़र टिकाए बैठी रहती है,
जहाँ से कभी तेरी किलकारियाँ सुनाई देती थी.
मायूस बैठतें हैं अब मैं और मेरी आवाज़,
अबतो हम ही बातें नहीं किया करते!
क्या तेरे ससुराल की गलियों में तेरी हंसी गूंजती है?
क्या वहाँ घर आँगन में तेरी सहेलियां साथ खेलती हैं?
हो सके तो बस एक बार मेरी आवाज़ को उनका पता दे देना,
शर्म सी आती है अब जब लोग गूंगा कहते हैं मुझे,

हाँ तुझसे मिलकर शायद लौट आए मेरे पास!